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प्रया ेगात्मक कला - एक विशलेषण

Journal: INTERNATIONAL JOURNAL OF RESEARCH -GRANTHAALAYAH (Vol.6, No. 12)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 1-3

Keywords : प्रयोगात्मक कला; चित्रकला;

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Abstract

अभिव्यंजना अथवा भावाभिव्यक्ति द्वारा सौंदर्य सृजन मनुष्य मात्र को चरम संतुष्टि प्रदान करता रहा है। फिर उसका माध्यम क ुछ भी हो अभिव्यक्ति ही कलाकार का मुख्य उद्देश्य रहता है वह अपन े उद्देश्य क े अन ुरूप माध्यम भी खोज लेता है। यह प्रक्रिया आदिमकाल से लेकर वर्त मान तक अनवरत रूप से जारी है। सर्वप्रथम मानव ने पत्थरों से शिलापट्टा ें पर आड़ी तिरछी र ेखाएँ उकेरी तत्पश्चात उसने प्रकृति प्रदत्त रंगा ें तथा जानवरों की चर्बी को माध्यम बनाया उसमें भी विविधता दर्शाने क े लिए उसने रंगों को पारदर्शी तथा अपारदर्शी रूप में उपयोग किया कहीं पूरक तथा कहीं अर्द्ध पूरक शैली का प्रयोग किया । कहीं र ेखाएँ खीची तथा कहीं हाथ से छापे लगाए कहीं कहीं विविधता के लिए मुंह में भरकर र ंग फूंका। प्राचीन काल तक आते आते कला उबड़खाबड़ शिलापट्टों से मुक्त हो चिकनी सतह पर आ गई। इस समय गुफाओं की भित्ति त ैयार करने क े लिए चूना, खड़िया, गोबर तथा बारीक बजरी का गारा जिसे अलसी क े पानी में भिगोकर फूलन े दिया जाता था। तत्पश्चात ् भित्ति पर इसकी पौन इंच मोटी तह लगाई जाती थी फिर उसपर अण्डे क े छिलक े क े बराबर मोटाई का सफेद पलस्तर का लेप चढ़ाया जाता था । इस प्रक्रिया से गुफाओ क े चटटानी दीवारों क े छिद्र भर जाते थे और दीवार चित्रण क े लिए समतल हो जाती थी उस पर वानस्पतिक तथा खनिज र ंगों को त ैयार कर उपयोग में लाया जाता था इन चित्रों को सुरक्षित रखने के लिए अंडे की सफेदी, गोंद, सर ेस, दूध आदि पदार्थ लासा क े रूप में प्रया ेग किए जाते थे। कालान्तर म ें भवनों, मन्दिरों तथा गिरजों की सपाट दीवारों पर चित्रण होने लगा । 14 वीं शती में कला दीवारों से उतर कर ताड़पत्र तथा पोथियों म ें समा गई संपूर्ण मध्यकाल में पोथी एवं पटचित्र की एक पुष्ट परंपरा प्रारंभ हुई ।

Last modified: 2019-01-24 15:03:20