लोक साहित्य, संस्कृति और इतिहास (राजस्थान के विशेष संदर्भ में)
Journal: ANSH - JOURNAL OF HISTORY (Vol.1, No. 1)Publication Date: 2019-07-25
Authors : Mr Shesh Karan B. Charan;
Page : 71-77
Keywords : ;
Abstract
लोकगीत, लोकनाट्य एवं लोकवाद्य राजस्थानी संस्कृति एवं सभ्यता के प्रमुख अंग हैं। आदिकाल से आजतक इन कलाओं का विविध रुप में विकास होता आया है। इन कलाओं का पारस्परितक सम्बन्घ भी घनिष्ठ है। इन सभी का साथ -साथ प्रयोग रंगमंच या तौराहों पर समां बाँध देता है। ये कलाएँ किसी न किसी पूर में शास्रीय संगीत की सीधी विचारों से नहीं जुड़ती हैं परन्तु लय और ताल में समानता आ जाती है। यदि इन कलाओं के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि रह युग में इनमें एकरुपता रही है जिनकी अभिव्यक्ति राजस्थानी जन जीवन में प्रस्फुटित हुई है। इन विद्याओं के विकास में भक्ति, प्रेम, उल्लास और मनोरंजन का प्रमुख स्थान रहा है। इनके पल्लवन में लोक - आस्था की प्रमुख भूमिका रही है। बिना आस्था और विश्वास के इन लोक कलाओं में अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
लोककला का राजस्थानी स्वरुप आज भी भारतीय लोककला को नई दिशा देने में अग्रणी है। इनकी केन्द्रीय स्थिती पंजाब, मध्य भारत एवं गुजरात तथा उत्तर प्रदेश इन लोक कलाओं से प्रभावित है। इन भागों के विविध जीवन पक्षों में राजस्थानी लोक कलाओं के प्रभाव का दिग्दर्शन होता है। इन कलाओं के विषय और साहित्य ने भारत के ही नहीं, विदेशों के कला मर्मज्ञों के हृदय को भी आकर्षित करने में सफलता प्राप्त की है ग्राहस्थ्य जीवन की सभी साधें लोक कला के माध्यम से प्रकट हुई है।
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Last modified: 2019-08-29 17:55:37