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ललित कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध और काव्य-कला की जुगलबंदी

Journal: INTERNATIONAL JOURNAL OF RESEARCH -GRANTHAALAYAH (Vol.7, No. 11)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 25-39

Keywords : ललित कलाओं; काव्य-कला; जुगलबंदी;

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Abstract

प्रकृति स्वयं एक विषाल फलक है। यही अद्भुत संयोजन एक महाकाव्य तो है ही, एक विराट दृश्य चित्र भी है। इसमें काव्य के रस, छन्द और अलंकार है तो विविध रंग और रूपाकार भी हंै तभी तो कविता एक जगमगाता बिम्ब है तो चित्र एक जगमगाती सजीव कविता। दोनों की अनुभूति अन्तस में गुनी जाती है। सभी कलाएं अनुभूति स्तर पर समान होतीं हंै और माध्यमों में व्यक्त होकर विभक्त हो जातीं हंै फिर चाहे कलाकार कहीं का हो। कलाओं के तात्विक विश्लेषण से पता चलता है कि सभी ललित कलाओं के अन्तःसम्बन्ध बहुत गहरे हैं और ये सदैव एक दूसरे को प्रभावित और सम्पन्न करते रहें हैं। यदि षब्दों के अर्थ की गहनता है , तो रेखाओं का अपना लालित्य है, यदि सुरों का अपना ब्रह्मांड है तो मुद्राओं का अपना भाव लोक है, यदि पत्थरों का एक लयात्मक स्वरूप है तो बिम्बों का अपना एक आकार बोध है। कलाओं में चित्रकला तो काव्य के समानान्तर ही विकसित हुई है।माध्यम के अनुसार सभी ललित कलाओं का अपना-अपना अस्तित्त्व है। आदि काल में अपने को व्यक्त करने के लिए यही ं कलाएं उसकी स्थूल भाषाएं थी। इनकी स्थापना के बाद भी मनुष्य वर्षों ऐसे शक्तिशाली माध्यम की खोज में लगा रहा होगा। जिसके द्वारा वह एक अपने सम्पूर्ण चिन्तन को व्यक्त कर सकता था। उसी के परिणाम स्वरूप उसे शब्द मिला होगा। 

Last modified: 2020-01-08 16:03:50