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स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में भक्तियोग की साधना

Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.5, No. 4)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 15-19

Keywords : भक्ति; प्रेम; साधना; गौणी; रागात्मिका; परा; अपरा; मुक्ति;

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Abstract

भक्ति से पूर्व हम यह जानने की चेष्ठा करेंगे कि ईश्वर प्रेम क्या है? हमारे मन इस सांसारिक वस्तुओं तथा व्यक्तियों के प्रति कुछ धारणायें होती है। हम अपने पालक, सगे-सम्बन्धी, मित्र, सन्तान से प्रेम करते हैं। पति-पत्नी में प्रेम होता है। फिर हम धन सम्पत्ति, प्रसिद्धि इस प्रकार की वस्तुओं में प्रेम करते हैं। परन्तु ईश्वर प्रेम क्या है? क्या जिस प्रकार का सम्बन्ध हमारा अन्य लोगों से है वैसा ही सम्बन्ध ईश्वर से है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा यह अनुभव किया जा सकता है कि संसार की समस्त वस्तुयें मूर्त हैं। किन्तु ईश्वर में यह भाव नहीं है। अगर हम ईश्वर के बारे में विचार करते हैं तो सच्चाई के साधन पर सब काल्पनिक लगता है। इसलिए ईश्वर प्रेम नहीं हो पाता। क्योंकि हम उसे अनुभव नहीं कर पाते। किन्तु हम ऐसे लोगों का मार्गदर्शन लें जिन्होंने ईश्वर को अनुभव किया है तो हम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। अगर हम ईश्वर को माता-पिता या पुत्र के भाव से देखे तो हमें ईश्वर प्रेम में सहयोग मिल सकता है। अगर मनुष्य यह भाव स्वयं के अन्दर पैदा कर ले कि इस सृष्टि में ईश्वर ही हमारे सर्वस्व है, तो ईश्वर की अनुभूति हो सकती है। दिन-प्रतिदिन उसका विकास हो सकता है। इसी ईश्वर प्रेम को भक्ति कहते हैं और भक्ति के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति को भक्तियोग कहते हैं। इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि इस संसार के प्रत्येक कण में ईश्वर विद्यमान है तो सभी के प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए। प्रेम ही ईश्वर के समीप ले जाने का सुगम मार्ग है। प्रेम की परिपक्व अवस्था ही भक्ति है।

Last modified: 2022-04-28 10:00:57