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लोक कथा से उपन्यास तक : निर्मला

Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.4, No. 9)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 49-57

Keywords : स्त्री-जीवन; संयोग एवं नियति; लोककथा; निर्मला; सामाजिक समस्या; दहेज; गाँधीवादी आश्रम; पितृसत्ता;

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Abstract

इस शोधपत्र में 'निर्मला' उपन्यास की कथावस्तु के संभावित स्रोतों और मौलिकता को परखने का प्रयास किया गया है । साथ ही यह समझने का प्रयास भी है कि समस्यामूलक विषय वस्तु पर केंद्रित उपन्यास में प्रेमचंद ने संयोग एवं अप्रत्याशित घटनाओं का धड़ल्ले से उपयोग क्यों किया है ? इससे उपन्यास के स्वरूप और उद्देश्य पर क्या प्रभाव पड़ा है ? ध्यान रहे कि यह उपन्यास 'चाँद' पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था , जिसका अपना पाठक वर्ग था । अनुमान यह भी लगाया जाता है कि इस उपन्यास को लिखते समय प्रेमचंद के ध्यान में यह पाठक वर्ग भी था । यहाँ लेखक का उद्देश्य अपने पाठक की बुद्धि को झकझोरने के बजाय उसके हृदय को करुणा से भर देना है । शायद यही कारण है कि 'निर्मला' में सामाजिक बुराइयों का मार्मिक चित्रण हुआ है लेकिन न तो इन्हें सामाजिक बुराई के रूप में चिन्हित किया गया है और न ही इनके विरुद्ध कोई सामाजिक आंदोलन हुआ है , जैसाकि 'सेवासदन' में होता है । अतः अधिकांश आलोचकों ने भी 'निर्मला' को स्त्री-जीवन की त्रासदी कहकर इस उपन्यास का निपटारा कर दिया है । ऐसा लगता है कि जब तक रचना में लेखक क्रांति की हुँकार न भरे आलोचक भी उस पर चुप्पी साध लेते हैं । प्रेमचंद ने 'निर्मला' में कोई क्रांतिकारी नारा नहीं दिया , कोई सुधारवादी आंदोलन नहीं चलाया, किसी सरकारी-गैरसरकारी समिति का गठन नहीं कराया और न ही किसी गाँधीवादी आश्रम की स्थापना की। इसके विपरीत ईश्वर को जीवन-रंगशाला का निर्दय सूत्रधार बता दिया । तो क्या इस आधार पर यह मान लिया जाए कि 'निर्मला' लिखते समय प्रेमचंद ईश्वरवादी , भाग्यवादी और निराशावादी हो गए थे ? ऐसे ही कुछ और प्रश्नों से जूझने का क्रमिक विकास यह शोधपत्र है ।

Last modified: 2021-09-29 12:15:29