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समीक्षा: 'हमने तो वो दिन देखे हैं' काव्य संग्रह में मीना समाज का सांस्कृतिक-सामाजिक अध्ययन

Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.5, No. 2)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 48-62

Keywords : गुड़ गुडाना; मोरछड़ी; सग्गड़ भैली; मोगरी; पींडी; चिरपोटन; मूसल; झेरणी; दंतालिया; छापदार;

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Abstract

हिंदी साहित्य में कविताओं का रस आदिकाल से लिया जा रहा है तथा वे तत्कालीन समाज की स्थिति को बताने का साहस रखती है। समय अनुसार कविता ने भी अपना रूप बदला आदिकाल और भक्तिकाल में कविताएं छंद से बंधकर रही और अलंकारिता उनमें पढ़ते ही बनती थी। उस समय के काव्य में व्याकरण के गुण अवश्य मिलते हैं। कविता में मात्रिक और वार्णिक दोनों छंद होते थे, हालांकि साहित्य पर भी एक खास पढ़े लिखे वर्ग का प्रभुत्व था, जो कि अपनी जाति को आगे बढ़ाने में लगे रहे। शिक्षा के अभाव में वंचित वर्ग ने अपना इतिहास, भूगोल, समाज, संस्कृति तथा राजनीति इत्यादि के बारे में नहीं लिखा। रीतिकाल में रीतिबद्ध कवियों ने पुरानी परिपाटी को बरकरार रखा तथा छंद से बंधकर ही काव्य रचना की। रीतिबद्ध और रीतिमुक्त कवियों ने काव्य या कविता को छंद मुक्त करने का दरवाजा खोल दिया। उसके बाद आधुनिक काल में कविता पूरी तरह छंदमुक्त हो गई। अब तो कविताओं ने गद्य का रूप धारण कर लिया। इसी संदर्भ में हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह 'हमने तो वो दिन देखे हैं ' में कैलाश चंद्र 'कैलाश ' ने अपनी रचना में केवल ' मैं' या 'हम' संबोधन को रखा है। यह उनकी अपनी शैली है। कविता संग्रह में 101 पद दिए गए हैं जो कि छंद मुक्त हैं। भक्तिकाल के कवियों की तरह पदों का कोई शीर्षक नहीं है। कवि एक महाकाव्य की तरह कथा को बताते चले गए।

Last modified: 2022-03-07 00:28:12