लोककला के प्रतीकों द्वारा वस्त्रसज्जा
Journal: INTERNATIONAL JOURNAL OF RESEARCH -GRANTHAALAYAH (Vol.7, No. 11)Publication Date: 2019-11-30
Authors : डॉ. कुमकुम भारद्वाज; भाग्यश्री कुलकर्णी;
Page : 181-184
Keywords : लोककला; वस्त्रसज्जा; प्रतीकों द्वारा;
Abstract
श्रीयुत शेलेन्द्रनाथ सामन्त के अनुसार लोककला जन सामान्य विशेषतः ग्रामीणजनों की सामूहिक अनुभूति की अभिव्यक्ति है। अन्य विद्वान ने लोक कला की परिभाषा के संबंध में जो विचार व्यक्त किये है, उन सबका निष्कर्ष यही है कि पुस्तकीय ज्ञान से भिन्न व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित सामान्य जन समुदाय भी अनुभूति की अभिव्यक्ति ही लोक कला है। लोक कलाt की उत्पत्ति धार्मिक भावनाओं, अन्धविश्वासों, भय निवारण अलंकरण, प्रवृत्ति तथा जातिगत भावनाओं की रक्षा के विचार से हुई, लोक-कला स्थानीय होती है, राजा, रंक, धनी और निर्धन सबने इसका उपयोग किया है। पढ़े और बिना पढ़े, मुर्ख और विद्वान ग्रामीण और नागरिक सभ्य और असभ्य सभी के लिए कला अपना विलक्षण सौन्दर्य प्रस्तुत करती है। लोककला मन की सहजावस्था में आदिम आनन्द की अजस्त्र धारा है जिसमें समय तथा स्थान की नवीन चेतना भी छोटी-छोटी धाराएँ मिलती है और विलिन होती रहती है। आदिम की भाँति लोककला मनुष्य की अन्त प्रेरणा का सहज तथा नैसर्गिक प्रस्फुटन है।
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Last modified: 2020-07-18 20:51:32