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नानक वाणी में जातीय व्यवस्था का खंडन

Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.3, No. 12)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 17-23

Keywords : निर्गुण संत धारा; युग प्रवर्तक; जातीय खंडन; वर्ण-व्यवस्था; मध्यकालीन भावबोध;

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Abstract

गुरु नानक देव जी एक महान दार्शनिक,विचारक और समाज सुधारक के रूप में हमारे सामने आते हैं जिन्होंने अपने समय में फैली तमाम कुरीतियों पर खुलकर प्रहार किया। गुरु नानक जी ने अपने समय में तत्कालीन सामाजिक,धार्मिक, राजनीतिक, पूंजीवादी व्यवस्था की वास्तविकता को देखकर समाज में बराबरी और समता की जो अलख जगायी तथा समाज के उत्थान के लिए जो योगदान दिया,वह महत्त्वपूर्ण व अतुलनीय है। गुरु नानक ने सभी बन्धनों को तोड़कर मानव की एक ही जाति बनाने का प्रयास किया “एक पिता एकस के हम बारिक”। संतों का समय और समाज अनेक आँधियों-व्याधियों से घिरा था।दो सौ साल से चले आ रहे मुस्लिम शासकों के कारण सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक स्थितियां और भी गंभीर हो गयीं थीं।गरीब, शोषित, पीड़ित वर्ग हिन्दू-मुसलमान दोनों ओर से उपेक्षा और अपमान की मार सह रहा था।जाति-पाति का विष समाज रुपी शरीर को बेहोश और बेहाल कर रहा था और उनकी पीड़ा असहनीय थी। जब संतो ने उनकी यह दुर्दशा देखी तो उन्होंने पंडा,पुरोहित, मौलवी आदि के अस्तित्व को नकारकर कुरीतियों का खंडन करना शुरू किया। मध्यकालीन समाज अनेक कुरीतियों के कारण जर्जर अवस्था में था,जिसमें समाज सुधार और समाज कल्याण की अति आवश्यकता थी।सारा सामाजिक ढांचा धर्म की भित्ति पर खड़ा था। कोई भी समाज सुधार सम्बन्धी विचार धर्म से स्वतंत्रत नहीं चल सकता था।मूलरूप से धार्मिक ढांचे में परिवर्तन लाना आवश्यक था।सभी संतों की वाणी और शिक्षाओं का यही सार है कि हर मनुष्य में उसी परमतत्त्व का अंश है, वह कण-कण में समाया है।

Last modified: 2021-06-23 17:04:29