ResearchBib Share Your Research, Maximize Your Social Impacts
Sign for Notice Everyday Sign up >> Login

हिंदी सिनेमा में परिवर्तन का दौर और दलित चेतना की फिल्में

Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.3, No. 12)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 57-62

Keywords : भारतीय सिनेमा; प्रगतिवाद; सामाजिक सरोकार; अछूत; जातिभेद; अंतर्जातीय विवाह; दलित स्त्री;

Source : Downloadexternal Find it from : Google Scholarexternal

Abstract

सिनेमा वर्तमान में अभिव्यक्ति का बहुत ही प्रभावशाली माध्यम है। भारत में हिंदी सिनेमा के बनने की शुरुआत में आलमआरा जैसी मूक फिल्म से होती है और बोलती फिल्म हरिश्चंद्र तक तकनीकी रूप से काफी विकास कर लेती है। इस आरंभिक दौर में फिल्म के विषय धर्म, नैतिकता, पौराणिक कथा, सामंतवाद और पूंजीवाद के प्रति विरोध के स्वर, स्वाधीनता आंदोलन, राष्ट्रीय चेतना की धारा आदि प्रमुखता से रहते हैं। लेकिन इस दौर में, फिल्मों के विषय सामाजिक आदर्श के आसपास ही होते थे। लेकिन साहित्य में आदर्श के साथ, सामाजिक रूढ़ियों, परम्पराओं, मान्यताओं, विसंगतियों के खिलाफ व्यक्ति के आक्रोश और विरोध को जगह दी गई। इस कारण उस दौर की फिल्में आम जन से जुड़ नहीं पायीं। । इप्टा का भी दौर आया जब साहित्य में प्रगतिवाद चरम पर था जब फिल्मों में इस विचारधारा का प्रभाव दिखायी पड़ता है। स्वतंत्रता के बाद युवाओं का व्यवस्था से मोह भंग होने लगा। 60 के दशक में कई फिल्में सामाजिक सरोकारों से जुड़ती हुई बनने लगी। इस तरह से सिनेमा और इसके विषय अपनी गति से बनते और बदलते रहे हैं। लेकिन भारत की एक बड़ी आबादी जो दलितों की है उनके विषय को अधिक प्रमुखता से छिटपुट ही दिखाये गए हैं। ‘अछूत कन्या' से लेकर आज के दौर की फिल्म ‘आर्टिकल 15' तक देखें, तो आज भी दलितों के विषय और समस्याएँ को छूती ऐसी फिल्में बड़ी कम संख्या में हैं। लेकिन अधिकतर फिल्मों के नायक दलित नहीं, बल्कि गैर दलित है जो दलितों का एकतरह से उद्धार करता प्रतीत होता है। हाल की फिल्म ‘काला' इसका अपवाद हो सकता है। इसका एक बड़ा कारण दलितों का इस क्षेत्र में कम प्रतिनिधित्व होना हो सकता है।

Last modified: 2021-06-23 17:16:46