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‘कुरूक्षेत्र’ का युद्ध दर्शन : एक मानवतावादी विचार

Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.5, No. 2)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 16-20

Keywords : महत्वाकांक्षा; अस्तित्व; विश्वव्यापी; उपजीव्य; आपलावित; आकम्य; वैषम्यता; विभीषिका; आत्मग्लानि;

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Abstract

‘कुरूक्षेत्र' का सारतत्व है कि युद्ध बुनियादी रूप से आकम्य है किन्तु बुराई से लड़ने के लिए किया गया युद्ध जरूरी और नैतिक है। यद्यपि महाभारत प्राचीन युग का महाकाव्य है, तथापि एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण सत्य यह भी है कि प्राचीन युग की अधिकांश समस्याएँ आधुनिक युग को विरासत में मिल गई है। इसलिए दिनकर कुरूक्षेत्र की भूमिका में लिखते हैं कि- ‘‘बात यों हुई कि मुझे अशोक के निर्वेद ने आकर्षित किया और ‘कलिंग-विजय' नामक कविता लिखते - लिखते मुझे ऐसा लगा मानो युद्ध की समस्या मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ है। इस क्रम में द्वापर की ओर देखते हुए मैंने युधिष्ठिर की ओर देखा, जो ‘विजय' इस छोटे-छोटे से शब्द को कुरूक्षेत्र में बिकी हुई लाशों से तौल रहे थे।” जबकि हम जानते हैं कि आज के उत्तर आधुनिक पूँजीवादी समाज में स्वार्थपरता, भोगलिप्सा, वैषम्यता, हिंसा, निष्ठुरता, आक्रमणता जैसी चीजें बढ़ गई हैं। जहाँ देखो, हर तरफ युद्ध की स्थिति है। जाति, वर्ग, लिंग, धर्म, नस्ल आदि के नाम पर चहुँओर हिंसा जारी है। हालाँकि युद्ध की विनाशकारी भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं परन्तु यह भी सच है कि हिंसा, बर्बरता तथा युद्ध के शिकार दुनिया के सबसे मासूम लोग ही हैं। संसाधनों पर अधिकार के लिए और लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर हजारों-लाखों लोगों का कत्लेआम अब भी जारी है।

Last modified: 2022-03-06 23:54:26