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भगद्गीता में निष्काम कर्म- दार्शनिक अवलोकन

Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.3, No. 12)

Publication Date:

Authors : ;

Page : 29-34

Keywords : कर्तव्य; लोकसंग्रह; निष्काम कर्म; निवृत्ति-प्रवृत्ति; स्वधर्मपालन।;

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Abstract

गीता असंख्य रत्नों का सागर है। उसके एक-एक रत्न को उसका एक-एक उपदेश कहा जा सकता है और उन सभी उपदेशों में व्यापक मानवता का हित बताया गया है यह किसी एक वर्ग, संप्रदाय, देश या व्यक्ति के लिए न होकर सबके लिए समान रूप से ग्राह्य है ऐनी बेसेंट के शब्दो में ‘गीता' का वह संगीत केवल अपनी ही जन्मभूमि तक सीमित न रहा; अपितु धरती के भिन्न-भिन्न भागों में प्रवेश कर प्रत्येक देश के प्रत्येक भावुक-हृदय व्यक्ति में उसने वही प्रतिध्वनि जगायी गीता जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालती हुए कर्म को तथा कर्तव्य को मुख्य स्थान देती है गीता में कहा गया कि कर्म के बिना एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता, अतः कर्म से विमुख हेाने की अपेक्षा कर्म-फल से विमुख होना ही गीता द्वारा श्रेयस्कर माना गया। गीता कर्मदृष्टि व्यक्ति-व्यक्ति को उसके नियत कर्तव्यों के लिए प्रेरित करती है और साथ ही यह भी निर्धारित करती है कि एक का दूसरे के प्रति क्या कर्तव्य है? दूसरे की उपेक्षा करके किया गया कोई कार्य ‘गीता' की दृष्टि से हेय है वह ग्राह्य तभी हो सकता है जब उसमें सर्वागीण दृष्टि हो स्वार्थ की छाया में न हो कार्य जो लोक संग्रह, स्वधर्म पालन तथा स्थितप्रज्ञता के साथ किये जाये निस्वार्थ हो उन्हें गीता स्वीकार्य करती है और ये कर्म निष्काम कर्म होते है जिसकी चर्चा वेदो, पुराणो, धर्म तथा अनेक दर्शन में देखने को मिलती है, इस शोध पत्र में गीता के निष्कामकर्म की दार्शनिक विवेचना प्रस्तुत किया गया है तथा उसके सभी पक्षों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

Last modified: 2021-06-23 17:07:46