दलित आलोचना की नई दिशाएं और संभावनाएं
Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.4, No. 9)Publication Date: 2021-09-17
Authors : रजनी बाला अनुरागी;
Page : 41-48
Keywords : साहित्य; दलित आंदोलन; दलित साहित्य; दलित आलोचना; आलोचना दृष्टि; सामाजिक सरोकार; नये प्रतिमान;
Abstract
हिन्दी में अपने उदय से लेकर आज भी दलित साहित्य लगातार साहित्य की तमाम विधाओं में गहन और मजबूत रचनात्मक हस्तक्षेप कर रहा है। दलित साहित्य वैचारिकी और आलोचना दृष्टि न सिर्फ़ दलित साहित्य के तमाम व्यापक सरोकारों, अन्तरविरोधों और अन्तरालों का मूल्यांकन करके सामने ला रहा है बल्कि गैर दलितों के सहानुभूतिपरक साहित्य के पूनर्मूल्यांकन के ज़रिये उसे एक नया दृष्टिकोण देने की कोशिश भी बहुत सकारात्मक ढ़ंग से कर रहा है। हिंदी में दलित साहित्य और आलोचना ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था और जातिवाद पर आधारित जाति व्यवस्था को लगातार चुनौतियां दी हैं। साहित्य के तमाम महिमामंडित आख्यानों पर पुनर्विचार और नए शोध के ज़रिये नई दृष्टि तलाशने के लिए प्रेरित किया है। जिससे दलित आलोचना की नई दिशाएं और संभावनाएं खुलती हैं। दलित साहित्य और आलोचना ने लगातार होने वाली उन बहसों को जन्म दिया है जिनसे साहित्य को अपने पुराने प्रतिमानों पर विचार करने की आवश्यक्ता पड़ी है। इन सब पर दलित और ग़ैर दलित विचारकों की आलोचना दृष्टि वाद-प्रतिवाद के रूप में सामने आई है और भविष्य के संवाद की ज़मीन तैयार की है। दलित साहित्य एक आंदोलन है जो अपनी समग्रता में व्यापक मानववादी मुक्तिकामी संघर्ष और स्वप्न का साहित्यिक रूप है जिसका उद्देश्य जातिविहीन, वर्गविहीन और लैंगिक व अन्य सभी प्रकार के भेदभावों से रहित प्रबुद्ध समाज और संस्कृति का निर्माण है जिसके मूल में ब्राह्मणवादी, पूंजीवादी और साम्राज्यवादी साहित्यि सांस्कृतिक सरोकारों और रुझानों के प्रति एक सचेष्ट और प्रखर विरोध है। इस मायने में यह व्यापक मानवीय और साहित्यिक सरोकारों का वैश्विक आंदोलन है।
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Last modified: 2021-09-29 11:55:11