बौद्धदर्शन में अपरिग्रह का स्वरूप
Journal: Praxis International Journal of Social Science and Literature (Vol.3, No. 11)Publication Date: 2020-11-24
Authors : पूनम खण्डेलवाल;
Page : 74-78
Keywords : दर्शन; अपरिग्रह; आशक्ति; तृष्णा; श्रमण; संस्कृति; वृत्ति; राग; द्वेष आदि।;
Abstract
बौद्ध दर्शन के विभिन्न ग्रन्थों का परिशीलन करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि- महात्मा बुद्ध ने परिग्रह की भावना को ‘तृष्णा' नाम से पहचाना है। बौद्ध ग्रन्थों में आसक्ति-तृष्णा को सभी बन्धनों एवं दुःखों का मूल माना है। बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति चाहे पदार्थों की हो या आत्मा के अस्तित्व की हो, वह बंधन ही है। तृष्णा का प्रहाण होना ही निर्वाण है। इस तरह के प्राप्त वर्णन के अनुसार हम यह कह सकते हैं, ज्ञातपुत्र महावीर के समकालीन रहे गौतम बुद्ध ने, भी चाहे ‘अनासक्ति' अथवा ‘विततृष्णा' या ‘तृष्णा त्याग' को अपने जीवन सिद्धान्तों में स्थान देकर ‘अपरिग्रह' व्रत को पुष्ट किया है। बौद्ध दर्शन में ‘परिग्रह' या अपरिग्रह शब्द का प्रयोग न हुआ हो फिर भी भाव, भाषा तथा उपमा आदि के द्वारा अपरिग्रह भावों से वह प्रभावित दिखाई देता है। परिग्रह शब्द के स्थान पर वहां मोह, ममता, आशा, तृष्णा, लोभ आदि शब्दों का प्रयोग किया है। इस तरह बौद्ध दर्शन में निष्परिग्रहत्व पर बल दिया है।
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Last modified: 2021-06-24 00:59:32