पूर्वमध्यकालीन उत्तर भारतीय मुद्राओं का महत्त्व व समस्या का स्वरूप
Journal: Drashta Research Journal (Vol.1, No. 03)Publication Date: 2012.08.15
Authors : प्रदीप कुमार नेहरा;
Page : 170-175
Keywords : मुद्राएं; सिक्के; शासक; लिपि; मूर्तियां; वाणिज्य;
Abstract
भारतवर्ष में पूर्वमध्यकाल का समय गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् छठी शती ई॰ से प्रारम्भ माना जाता है । उस समय अनेक छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हुआ । उन शासकों में कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था, जो एक छत्र शासन स्थापित कर सके । उस समय हर्षवर्धन ने ही सम्पूर्ण उत्तर भारत में अपना शासन स्थापित किया, परन्तु उसके बाद कोई ऐसा शासक नहीं हुआ जो सम्पूर्ण साम्राज्य को एक सूत्र में बांध सके । इसलिए हमारे मुद्रातत्त्वविदों और अर्थशास्त्री इतिहासकारों के बीच यह अवधारणा है कि गुप्त साम्राज्य के ”ह्रांस के पश्चात् देश में जो राजनैतिक शिथिलता आई, उससे व्यापार वाणिज्य में भी ”ह्रांस होने लगा था। लगभग आठवीं-नौंवी शताब्दी से बाहरवीं शताब्दी के मध्य तक सिक्कों के निर्माण में कलात्मक ”ह्रांस दृष्टिगोचर होने लगता है । विद्वान इसका कारण सामन्तवाद को मानते हैं ।
Other Latest Articles
- आर्यसमाज की राष्ट्रवादी विचारधारा
- कौटिल्य अर्थशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में मौर्यकालीन न्याय-व्यवस्था
- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के हास्य-व्यंग्य नाटकों में भाषा-शैली: एक समीक्षात्मक अध्ययन
- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के काव्य में वैयक्तिकता और सामाजिकता की समस्या
- हिन्दी कहानी और उपभोक्तावादी संस्कृति
Last modified: 2025-04-12 22:51:57